जन अरण्य नहीं थमता, उत्सव, समारोह,
युद्ध - त्रासदी के मध्य हो कर, बहता
जाता है जीवन स्रोत, कोई नहीं
सुनता सीमान्त का मौन
क्रंदन, विशालकाय
मीन की तरह
निगल
जाते हैं महादेश, किनारे पर पड़े रहते हैं -
छिन्न भिन्न अर्ध जले हुए मानव
उपनिवेश, कुछ अस्थि पिंजर
कुछ धुंधले स्मृतियों के
अवशेष, बुझ जाते
हैं अपने आप
तथाकथित
मानव
सभ्यता के ज्योत, उत्सव, समारोह,युद्ध
- त्रासदी के मध्य हो कर, बहता
जाता है जीवन स्रोत। कलिंग
हो या सीरिया, ईराक से
ले कर यूक्रेन, वही
जल - साम्राज्य
का विधान,
सिर्फ़
मेरा ही हो हर तरफ वर्चस्व ज़मीं से ले
कर आसमान, हर युग में बदल
जाते हैं इंसानियत के
तजवीज़, कभी
देते हैं धर्म
की दुहाई
और
कभी बांध लेते हैं लोग अपनी बांहों में
नक़ली अमन ताबीज़, हालांकि
सीना रहता है भेदभाव से
ओतप्रोत, उत्सव,
समारोह, युद्ध
- त्रासदी
के मध्य हो कर, बहता जाता है जीवन
स्रोत।
* *
- - शांतनु सान्याल
28 फ़रवरी, 2022
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बहुत दिनों बाद आपको पढ़ा। बहुत अच्छा लगा, यों ही आते रहे।
जवाब देंहटाएंआपका सृजन लाज़वाब होता है हर शब्द गहनता लिए।
युद्ध शब्द की कल्पना मात्र से ही हृदय बैठ जाता है।
सादर