सिमटती नदी के दोनों पार है अनंत
पलाश वन, रेत के आंचल पर
कोई उकेर गया जीवन -
दर्पण, ढूंढते हैं न
जाने किसे
अंतर
के मृग नयन, सिमटती नदी के दोनों
पार है अनंत पलाश वन। कहां
रुकता है कच्चे घड़े का
पानी, वही तुम हो
वही हम हैं
और
ज़िन्दगी है वही, इक बूंद की कहानी,
समेटता हूँ मैं, नाहक ही हथेलियों
पर, गिरते हुए उच्च जल प्रपात
का चंचल पानी, मोह
उतना ही है बेहतर
जिसे भूलने
में हो
ज़रा आसानी, कहां रुकता है कच्चे
घड़े का पानी।
* *
- - शांतनु सान्याल
23 मार्च, 2022
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हृदयस्पर्शी यथार्थ कहती सुन्दर भावाभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद मान्यवर ।
हटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 24 मार्च 2022 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
असंख्य धन्यवाद मान्यवर ।
हटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 24-3-22 को चर्चा मंच पर चर्चा - 4379 में दिया जाएगा| चर्चा मंच पर आपकी उपस्थिति सभी चर्चाकारों की हौसला अफजाई करेगी
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद मान्यवर ।
हटाएंसुन्दर भावों से सजी ह्रदयस्पर्शी रचना।
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद मान्यवर ।
हटाएंसच में मानव बूँद में सागर समेटना चाहता है और मृणमय में चिन्मय को देखना
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद मान्यवर ।
हटाएं… कहां रुकता है कच्चे
जवाब देंहटाएंघड़े का पानी। बहुत सुन्दर
असंख्य धन्यवाद मान्यवर ।
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