27 मार्च, 2022

छत विहीन प्रासाद - -

स्मृतियों से पलायन कहाँ आसान,
समय का तेज़ घूमता हिंडोला,
और कोई शून्य से बार
बार फेंके है सुरभित
रुमाल, छूने
की चाह
में अक्सर ख़ुद को न पाएं संभाल,
हथेलियों में बंद जुगनू की
तरह कोई लगे रूह
तक शामिल,
मुट्ठी के
खुलते ही लगे धूसर सा अंतहीन -
नीला आसमान, स्मृतियों
से पलायन कहाँ
आसान।
खिलने के साथ ही है तयशुदा फूल
का मुरझाना, स्वर्ण जड़ित
फ्रेम में चाहे क्यूँ न
हो बहुमूल्य
दर्पण,
नहीं रूकती है चेहरे पर सुबह की -
नरम धूप, उसे तो हर हाल
में है ढल जाना,  छत
विहीन स्तंभ रह
जाते हैं अपनी
जगह ओढ़े
हुए दूर
तक वीरानगी के चादर, धुंध में
खो जाते हैं सभी आनबान,
स्मृतियों से पलायन
कहाँ आसान।
* *
- - शांतनु सान्याल

12 टिप्‍पणियां:

  1. स्मृतियों से पलायन
    कहाँ आसान।
    अत्यंत भावपूर्ण अभिव्यक्ति के माध्यम से प्रभावी जीवन दर्शन शान्तनु जी।निशब्द करता है आपका लेखन।बधाई और आभार 🙏🙏

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  2. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर सोमवार 28 मार्च 2022 को लिंक की जाएगी ....

    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!

    !

    जवाब देंहटाएं
  3. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (28 मार्च 2022 ) को 'नहीं रूकती है चेहरे पर सुबह की नरम धूप' (चर्चा अंक 4383) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:30 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

    चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।

    यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।

    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

    #रवीन्द्र_सिंह_यादव

    जवाब देंहटाएं

  4. तक वीरानगी के चादर, धुंध में
    खो जाते हैं सभी आनबान,
    स्मृतियों से पलायन
    कहाँ आसान।

    आत्मीय पंक्तियाँ
    सुन्दर साधुवाद

    जवाब देंहटाएं

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