पल्लव विहीन हैं पलाश वन फिर
भी, कुछ सिंदूरी स्वप्न कभी
नहीं मरते, ऋतु चक्र की
है अपनी मजबूरी,
उड़ते हैं डायरी
के बेक़रार
पन्ने,
कुछ अंतरतम की गहराई में हैं -
छुपे हुए अनदेखे सपने, देह
का पलस्तर ढह जाए
तो क्या, अंदरूनी
रंग नहीं
झरते,
पल्लव विहीन हैं पलाश वन फिर
भी, कुछ सिंदूरी स्वप्न कभी
नहीं मरते। कोई लैटिनो
ख़्वाब है ज़िन्दगी,
गुज़रती है जो
आधी -
रात
को अमेरिकी मरू सीमांत के - -
समानांतर, एक तरफ
है सघन अंधेरा दूसरी
ओर झिलमिलाता
सा कृत्रिम
सवेरा,
कुछ पल तुम्हारे हैं ज़्यादा, कुछ
क्षण हैं हमारे न के बराबर,
फिर भी किसी एक
बिंदु पर हर
चेहरे हैं
मिलते जुलते, पल्लव विहीन हैं
पलाश वन फिर भी, कुछ
सिंदूरी स्वप्न कभी
नहीं मरते।
* *
- - शांतनु सान्याल
05 फ़रवरी, 2022
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वाह... कमाल की रचना।
जवाब देंहटाएंसमय साक्षी रहना तुम by रेणु बाला
सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (6-2-22) को "शारदे के द्वार से ज्ञान का प्रसाद लो"(चर्चा अंक 4333)पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
--
कामिनी सिन्हा
जीवन इसी विरोधाभास का नाम है, सुंदर सृजन!
जवाब देंहटाएंआदरणीय शांतनु जी, आपकी रचना एक अंतराल के बाद चर्चा अंक में पढ़ने को मिल रही है।
जवाब देंहटाएंजिजीविषा को प्रबल करती बहुत सुंदर रचना!
पल्लव विहीन हैं
पलाश वन फिर भी, कुछ
सिंदूरी स्वप्न कभी
नहीं मरते।
सुंदर शब्दों का चयन! साधुवाद!--ब्रजेंद्रनाथ
good poem
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