जन - अरण्य की थी अपनी अलग ख़ूबसूरती,
हज़ार बार ख़ुद को गुमशुदा पाया, हज़ार
बार ज़िन्दगी से मुलाक़ात हुई, कहाँ
मिलते हैं मनचाहे रास्ते, कहाँ
कोई खड़ा होता है मुंतज़िर
किसी के वास्ते, बड़े
विस्मय से वो
देखता रहा
मुझ को
एक टक, किसी अजनबी की तरह, यूँ तो हर
एक मोड़ पर रुक कर, बारहा उनसे बात
हुई, हज़ार बार ख़ुद को गुमशुदा
पाया, हज़ार बार ज़िन्दगी
से मुलाक़ात हुई। सभी
दर्प उतर जाते हैं
धीरे - धीरे,
दर्पण रह
जाता
है बिम्ब विहीन, दोनों पार्श्व हैं पारदर्शी, फिर
भी वजूद का ठिकाना कहीं नहीं, वो सभी
हैं कल्प - कहानियों में छुपे हुए चेहरे,
जो दिखाते हैं मिथ्या मरुद्यान,
हमारे पांव तले है केवल
पथरीली ज़मीन,
रात तो गुज़र
गई यूँ ही
बियाबां
के राह चलते, सुबह को हो मुबारक अंतिम -
पहर जो बरसात हुई, हज़ार बार ख़ुद को
गुमशुदा पाया, हज़ार बार ज़िन्दगी
से मुलाक़ात हुई - -
* *
- - शांतनु सान्याल
27 जनवरी, 2022
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बहुत खूब सर!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना !
जवाब देंहटाएंवाकई बहुत ही सुंदर😍💓
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