उगते सूरज का था सभी को इंतज़ार,
जो पीछे छूट गए, वो सभी कोहरे
में कहीं खो गए, उनका पता
शायद, दे पाए खोह के
अंधकार, कुछ मृत
स्मृतियों के
जीवाश्म
उभरे
पड़े
थे पिछले पहर, दूर तक जाती है इक
सुनसान सी सड़क, कोई नहीं
जानता, कहाँ, किस मोड़
पर जा कर रुकेगा ये
बोझिल सांसों का
सफ़र, उम्र
भर था
वो
परेशां, देख कर फ़िरौन का कारोबार,
उगते सूरज का था सभी को
इंतज़ार। न जाने किस
दर पर उस ने दी
थी दुआओं
वाली
दस्तक, हर किसी ने कंपन महसूस
किया था ज़रूर, जिसने दरवाज़ा
खोल कर उसे इक नज़र
देखा, वो तर गया
ज़िन्दगी और
मौत के
दोनों
जहान से, न था वो कोई फ़रिश्ता न
ही देवता किसी उजड़े मंदिर का,
वो समदर्शी अक्स था मेरा
जो उतरा था, आईने
के आसमान से,
जो मध्य
रात
बुलाता रहा मुझे बारम्बार, उगते - -
सूरज का था सभी को
इंतज़ार।
* *
- - शांतनु सान्याल
09 जनवरी, 2022
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जवाब देंहटाएंनमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (10-01-2022 ) को (चर्चा अंक 4305) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 09:00 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
ह्रदय तल से आभार नमन सह।
हटाएंबहुत सुंदर, आदरणीय
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार नमन सह।
हटाएंवो सभी कोहरे
जवाब देंहटाएंमें कहीं खो गए, उनका पता
शायद, दे पाए खोह के
अंधकार, कुछ मृत
स्मृतियों के
जीवाश्म.. हमेशा की तरह लाज़वाब सृजन।
सादर
ह्रदय तल से आभार नमन सह।
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