सर ज़मीं ए ख़्वाब दिखा कर,
लोग न जाने कहाँ गए,
मुसलसल बियाबां
के सिवा कुछ
न था हम
जहाँ
गए, उनका अपना है जो
चश्म ए अंदाज़, कैसे
कोई बदले, संग
ए बुत हो,
या
ख़ुदा का घर, हम सिर्फ़
तनहा गए, कहते हैं
यहाँ कभी था
इक लहराता
हुआ झील
दूर तक,
न
दरख़्त, न कोई साया, न
जाने किधर वो कारवां
गए, आईना कहता
है मुझसे ऐनक
को ज़रा
बेहतर
पोंछ
लूँ,
कोहरा है घना, राह बता कर
जाने कहाँ वो रहनुमा
गए - -
* *
- - शांतनु सान्याल
28 दिसंबर, 2021
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जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार(३०-१२ -२०२१) को
'मंज़िल दर मंज़िल'( चर्चा अंक-४२९४) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बहुत बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंसर ज़मीं ए ख़्वाब दिखा कर,
जवाब देंहटाएंलोग न जाने कहाँ गए
ख्वाब ही दिखाते है दूसरे मंजिल तक पहुँचाये तो ...
बहुत सुन्दर सृजन।
बहुत सुंदर भावपूर्ण अभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएं