हमेशा संधि - स्थल नहीं होता अंतिम
बिंदु, कुछ दूर साथ बह कर नदियां
मुड़ जाती हैं भिन्न दिशाओं
में, सूखे हुए तलछट
पर रह जाते हैं
निःशब्द से
कुछ
क़दमों के निशां, दौड़ते हुए से लगते
हैं पेड़ पौधे, खेत खलियान, नदी
पहाड़, फूलों से लदी वादियां,
कुहासे में डूबी हुई अंध
घाटियां, ज़िन्दगी
अपने अंदर
तब होती
है एक
वेगवान सी परिश्रांत नदी, वो रुकना
चाहती है किसी मोड़ पर एक रात
के लिए, लेकिन ज़रूरी नहीं
मिल जाए कोई सराय
सघन अरण्य
राहों में,
हमेशा संधि - स्थल नहीं होता अंतिम
बिंदु, कुछ दूर साथ बह कर नदियां
मुड़ जाती हैं भिन्न दिशाओं
में। मध्य रात के थे वो
सभी मेघ दल, छू
कर गए हैं
शायद
मेरी
ओंठों के सतह, एक नमी सी है दिल
की गहराइयों तक, फिर सुबह
की है तलाश सर्द चाँदनी
रात के बाद, कुछ
पल सुकून तो
मिले नर्म
धूप
के पनाहों में, हमेशा संधि - स्थल
नहीं होता अंतिम बिंदु, कुछ
दूर साथ बह कर नदियां
मुड़ जाती हैं भिन्न
दिशाओं
में।
* *
- - शांतनु सान्याल
20 दिसंबर, 2021
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सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार(21-12-21) को जनता का तन्त्र कहाँ है" (चर्चा अंक4285)पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
--
कामिनी सिन्हा
ह्रदय तल से आभार नमन सह।
हटाएंबहुत सुन्दर !
जवाब देंहटाएंनदी को तो चलते रहना है, सतत बहते रहना है !
उसकी किस्मत में विश्राम कहाँ?
ह्रदय तल से आभार नमन सह।
हटाएंअच्छी रचना
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार नमन सह।
हटाएं