18 दिसंबर, 2021

क्षितिज पार के पथिक - -

बूंद बूंद ओस रुकी है कहीं, दिगंत के
नयन कोर, अंगुष्ठ और तर्जनी
के मध्य है कहीं मुहाने की
ज़मीं, देखती है जिसे
मेरी ज़िन्दगी
हो कर
आत्म विभोर, यहां अष्ट प्रहर चलता
रहता है क्रय विक्रय, कदाचित हो
निस्तब्धता तुम्हारी ओर, बूंद
बूंद ओस रुकी है कहीं,
दिगंत के नयन
कोर। सभी
स्रोत हैं
रुके रुके से तुम्हारी भव्यता के आगे,
सभी नदियों का अंत है निश्चित,
सांझ घिरते ही लौट आएंगे
सभी विहग वृन्द, अपने
अपने घर, तुम हो
वहीं अपनी
जगह
स्थिर, समय चक्र अपनी लय पर है
भागे, बिखरे पड़े हैं दूर दूर तक
अतीत के सभी छिन्न -
भिन्न पृष्ठ, क्लांत
रात्रि खड़ी है
अपने
दहलीज़ पर एकाकी, सुदूर धुंध में -
है कहीं कांपता हुआ निरीह
भोर, बूंद बूंद ओस
रुकी है कहीं,
दिगंत के
नयन
कोर।
* *
- - शांतनु सान्याल

13 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर रविवार 19 दिसंबर 2021 को लिंक की जाएगी ....

    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!

    !

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  2. बहुत ही शानदार सृजन आदरणीय सर

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  3. वाह! हमेशा की तरह शानदार प्रस्तुति।

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  4. आदरणीय शांतनु जी,
    आपके सृजन में लयात्मकता खोजते हुए कुछ इसतरह प्रयास करता हूँ:
    आत्म विभोर, यहां अष्ट प्रहर,
    चलता रहता है क्रय विक्रय,
    कदाचित हो निस्तब्धता तुम्हारी ओर,
    बूंद बूंद ओस रुकी है कहीं,दिगंत के नयन कोर।
    सुंदर शब्द समायोजन। साधुवाद१--ब्रजेंद्रनाथ

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  5. वाह ! चंद पंक्तियों में ही समग्र जीवन-दर्शन !

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