बूंद बूंद ओस रुकी है कहीं, दिगंत के
नयन कोर, अंगुष्ठ और तर्जनी
के मध्य है कहीं मुहाने की
ज़मीं, देखती है जिसे
मेरी ज़िन्दगी
हो कर
आत्म विभोर, यहां अष्ट प्रहर चलता
रहता है क्रय विक्रय, कदाचित हो
निस्तब्धता तुम्हारी ओर, बूंद
बूंद ओस रुकी है कहीं,
दिगंत के नयन
कोर। सभी
स्रोत हैं
रुके रुके से तुम्हारी भव्यता के आगे,
सभी नदियों का अंत है निश्चित,
सांझ घिरते ही लौट आएंगे
सभी विहग वृन्द, अपने
अपने घर, तुम हो
वहीं अपनी
जगह
स्थिर, समय चक्र अपनी लय पर है
भागे, बिखरे पड़े हैं दूर दूर तक
अतीत के सभी छिन्न -
भिन्न पृष्ठ, क्लांत
रात्रि खड़ी है
अपने
दहलीज़ पर एकाकी, सुदूर धुंध में -
है कहीं कांपता हुआ निरीह
भोर, बूंद बूंद ओस
रुकी है कहीं,
दिगंत के
नयन
कोर।
* *
- - शांतनु सान्याल
18 दिसंबर, 2021
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आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर रविवार 19 दिसंबर 2021 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
ह्रदय तल से आभार नमन सह।
हटाएंबहुत ही शानदार सृजन आदरणीय सर
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार नमन सह।
हटाएंवाह! हमेशा की तरह शानदार प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार नमन सह।
हटाएंवाह बेहतरीन।
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार नमन सह।
हटाएंआदरणीय शांतनु जी,
जवाब देंहटाएंआपके सृजन में लयात्मकता खोजते हुए कुछ इसतरह प्रयास करता हूँ:
आत्म विभोर, यहां अष्ट प्रहर,
चलता रहता है क्रय विक्रय,
कदाचित हो निस्तब्धता तुम्हारी ओर,
बूंद बूंद ओस रुकी है कहीं,दिगंत के नयन कोर।
सुंदर शब्द समायोजन। साधुवाद१--ब्रजेंद्रनाथ
ह्रदय तल से आभार नमन सह।
हटाएंवाह ! चंद पंक्तियों में ही समग्र जीवन-दर्शन !
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार नमन सह।
हटाएंह्रदय तल से आभार नमन सह।
जवाब देंहटाएं