वही लकीर के फ़क़ीर सभी, देह से पृथक है 
छाया, साथ साथ गुज़रने का अर्थ नहीं 
कि एक ही गंत्वय हो हमारा, सभी 
अनुबंध टूट जाते हैं चाहे बांधे 
जितना भी नेह डोर, कोई 
नहीं किसी का हम -
साया, वही 
लकीर 
के फ़क़ीर सभी, देह से पृथक है छाया । कोई 
नहीं होता ख़ुद के सिवा, जब रूबरू हो 
आरसी का शहर, खोजते हैं हम 
अपना ठिकाना, बंद हैं सभी 
दरवाज़े, रात का है ये 
अंतिम प्रहर, यूँ तो 
निकले थे हम 
कारवां के 
संग,
मुड़ कर देखा कई बार, हमारे साथ कोई भी 
न आया, वही लकीर के फ़क़ीर सभी,
देह से पृथक है छाया । 
* * 
- - शांतनु सान्याल 
 
 
10 फ़रवरी, 2022
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बहुत बढ़िया सर!
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार नमन सह।
हटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (११ -०२ -२०२२ ) को
'मन है बहुत उदास'(चर्चा अंक-४३३७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
ह्रदय तल से आभार नमन सह।
हटाएंबेहतरीन रचना।
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार नमन सह।
हटाएंन हमारे साथ कोई आया
जवाब देंहटाएंन हम किसी के साथ गए
आरसी में प्रतिबिम्ब किसका है ?
ह्रदय तल से आभार नमन सह।
हटाएंबहुत ही सुंदर !!
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार नमन सह।
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