रेतीला द्वीप उभर आया है ठीक मझधार,
मौसम बदलते ही सिमट चले हैं नदी
के दोनों किनार, धूसर स्मृतियां
ढूंढती हैं न जाने किसे,
हाथों में लिए कोई
भूल ठिकाना,
पुरातन
कोई
किताबी गंध है या लिफ़ाफ़ा बंद अफ़साना,
कच्ची धूप के हमराह, कौन दस्तक
देता है बारम्बार, रेतीला द्वीप
उभर आया है ठीक
मझधार, मौसम
बदलते ही
सिमट
चले
हैं नदी के दोनों किनार । हद ए नज़र कभी
हुआ करता था, बकुल का दरख़्त -
बहुत ऊंचा, जिस में खिलते
थे सहस्त्र कर्ण फूल,
हवाओं में तैरा
करती थी
एक
मधुर सी गंध, देखते ही देखते एक दिन वो
पेड़, अचानक ही हो गया लापता,
उसके आसपास खड़े थे ऊंचे -
ऊंचे कंक्रीट के जंगल,
दरअसल हटते -
हटते हमारा
वजूद एक
दिन
हो जाता है अदृश्य, यहाँ तक कि ठूंठ तक
उखाड़ लेते हैं लोग, और हम करते हैं
यथास्थिति स्वीकार, रेतीला
द्वीप उभर आया है ठीक
मझधार, मौसम बदलते
ही सिमट चले हैं
नदी के दोनों
किनार ।
* *
- - शांतनु सान्याल
27 नवंबर, 2022
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