01 नवंबर, 2022

अप्रत्याशित किसी स्टेशन पर - -

बहुत हल्का है उन्मुक्त नील आकाश का
वज़न, अगर हम उसका बेफ़िक्र
अंदाज़ अपने में समा लें,
पंखुड़ियों से उतर
कर  दिल की
ज़मीं पर,
जब
बहते हैं ओस कण, परस्पर कुछ साझा -
दर्द क्यूँ न अपना बना लें, फ़र्श पे
बेतरतीब से बिखरे पड़े हैं
वर्णमाला पारिजात
की तरह, चलो
उठा कर
फिर
उन्हें रूह में बसा लें, बहुत हल्का है - -
उन्मुक्त नील आकाश का वज़न,
अगर हम उसका बेफ़िक्र
अंदाज़ अपने में
समा लें।
इस
चार दीवारी के अंदर ही है विश्व भ्रमण
का अभियान, किसी एक रेलगाड़ी
पे हो सवार, खिड़की के पास
बैठ कर ज़िन्दगी करती
है किसी एक सुन्दर
स्टेशन का
इंतज़ार,
और
अचानक ही किसी वन्य गूलर की तरह
टूट कर ज़मीं पर उतर जाती है
निःशब्द, उन ख़ामोश
पलों में मंद मंद
मुस्कुराता
है एक
मुश्त
खुला आसमान, इस चार दीवारी के अंदर
ही है विश्व भ्रमण
का अभियान !
* *
- - शांतनु सान्याल
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8 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (02-11-2022) को  "जंगल कंकरीटों के"  (चर्चा अंक-4600)  पर भी होगी।
    --
    कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  

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  2. आकाश की उन्मुक्तता की तरह मुक्ति का अहसास कराती रचना!

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  3. अचानक ही किसी वन्य गूलर की तरह
    टूट कर ज़मीं पर उतर जाती है
    निःशब्द, उन ख़ामोश
    पलों में मंद मंद
    मुस्कुराता
    है एक
    मुश्त
    खुला आसमान, इस चार दीवारी के अंदर
    ही है विश्व भ्रमण
    का अभियान !

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