एक ही चेहरे पे हैं छुपे हुए हज़ार चेहरों के परत,
गुप्त नखों की दुनिया होती है पंजों के अंतर्गत,
देह प्राण को बींधते हैं नुकीले सम्मोहन के कील,
फिर भी मिटती कभी नहीं कुछ पलों की हसरत,
पोष्य व हिंस्र के बीच रहती है इक महीन लकीर,
उसी प्रकृत रेखा के मध्य रहती है हयाते मसर्रत,
वृष्टि, मेघ, फूल, ख़ुश्बू, नए सपनों का अंकुरण,
परिचित छुअन उतरता है रूह में आँखों के मार्फ़त,
सहसा जी उठते हैं, विलुप्त हृत्पिंड के जीवाश्म,
जीवन लगता है पहले से कहीं अधिक ख़ूबसूरत,
सभी तर्क वितर्क इस एक बिंदु पर आकर हैं शेष,
हर एक शख़्स को होती है किसी और की ज़रूरत ।
* *
- - शांतनु सान्याल
06 नवंबर, 2022
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सभी तर्क वितर्क इस एक बिंदु पर आकर हैं शेष,
जवाब देंहटाएंहर एक शख़्स को होती है किसी और की ज़रूरत ।
... बहुत ही सटीक व्याख्या ।
दिल की गहराइयों से शुक्रिया ।
हटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (०७-११-२०२२ ) को 'नई- नई अनुभूतियों का उन्मेष हो रहा है'(चर्चा अंक-४६०५) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
असंख्य आभार आदरणीया ।
हटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंअसंख्य आभार मान्यवर ।
हटाएंसटीक अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंअसंख्य आभार आपका, नमन सह ।
हटाएंवृष्टि, मेघ, फूल, ख़ुश्बू, नए सपनों का अंकुरण,
जवाब देंहटाएंपरचित छुअन उतरता है रूह में आँखों के मार्फ़त...शानदार रचना शांतनु जी
असंख्य आभार ।
जवाब देंहटाएंसच में सबको होती है जरूरत। सुन्दर सृजन।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएं