06 नवंबर, 2022

ज़रूरत - -

एक ही चेहरे पे हैं छुपे हुए हज़ार चेहरों के परत,
गुप्त नखों की दुनिया होती है पंजों के अंतर्गत,

देह प्राण को बींधते हैं नुकीले सम्मोहन के कील,
फिर भी मिटती कभी नहीं कुछ पलों की हसरत,

पोष्य व हिंस्र के बीच रहती है इक महीन लकीर,
उसी प्रकृत रेखा के मध्य रहती है हयाते मसर्रत,

वृष्टि, मेघ, फूल, ख़ुश्बू, नए सपनों का अंकुरण,
परिचित छुअन उतरता है रूह में आँखों के मार्फ़त,

सहसा जी उठते हैं, विलुप्त हृत्पिंड के जीवाश्म,
जीवन लगता है पहले से कहीं अधिक ख़ूबसूरत,

सभी तर्क वितर्क इस एक बिंदु पर आकर हैं शेष,
हर एक शख़्स को होती है किसी और की ज़रूरत ।
* *
- - शांतनु सान्याल   
 

 



12 टिप्‍पणियां:

  1. सभी तर्क वितर्क इस एक बिंदु पर आकर हैं शेष,
    हर एक शख़्स को होती है किसी और की ज़रूरत ।
    ... बहुत ही सटीक व्याख्या ।

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  2. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (०७-११-२०२२ ) को 'नई- नई अनुभूतियों का उन्मेष हो रहा है'(चर्चा अंक-४६०५) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  3. वृष्टि, मेघ, फूल, ख़ुश्बू, नए सपनों का अंकुरण,
    परचित छुअन उतरता है रूह में आँखों के मार्फ़त...शानदार रचना शांतनु जी

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  4. सच में सबको होती है जरूरत। सुन्दर सृजन।

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