निर्वाक रात्रि पहनती है कांच के पोशाक,
उतरती है मद्धम मद्धम, अन्तःस्थल
की गहनता को छूती हुई अतल
मर्म प्रदेश, इन रुपहले पलों
में टूट जाते हैं सभी
मानव निर्मित
सीमान्त
रेखाएं,
पड़े रहते हैं ज़मीं पर बिखरे हुए निर्बंध से
चांदनी के अवशेष, ओस लिखती है
तृषित ओंठों पर जीवंत कविता,
गहनता को छूती हुई अतल
मर्म प्रदेश । एकत्र बहती
दो नदियां, एक दूजे
में खो जाती हैं
किसी एक
मिलन -
बिंदु पर, खेलती हैं वो धूप छांव का खेल, -
इन प्रणयी पलों के साक्षी होते हैं सहस्त्र
प्रतिबिंबित ग्रह नक्षत्र, प्रवाहमान
सहधाराओं का गंतव्य रहता
है सदैव अशेष, वो बहती
हैं अंतहीन सागर
के अभ्यंतरीण,
छूते हुए
सघन
नील मर्म प्रदेश, पड़े रहते हैं ज़मीं पर - - -
बिखरे हुए निर्बंध से चांदनी के
अवशेष ।
* *
- - शांतनु सान्याल
08 नवंबर, 2022
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