निगाह के बहोत अंदर है, इक नदी का किनारा,
पलकों की छांव में रहता है, इक ख़्वाब आवारा,
कभी तो लरज़े, ख़ामोश मुजस्समे की तिश्नगी,
जी चाहता कि उढ़ेल दूँ, हयात ए जाविदां सारा,
ज़िन्दगी का हासिल है, उजाले का तक़्सीमकार,
राहते जां से कुछ कम नहीं, डूबता हुआ सितारा,
इतना उलझाव भी ठीक नहीं, यूँ डूबने से पहले,
हाथ तो उठाएं, किसे ख़बर, कौन दे जाए सहारा,
चाहतों के फ़ेहरिश्त में होते हैं, हज़ार प्रतिबिम्ब,
सुबह के उजाले में शून्य रहता है देह का पिटारा,
बिखरे पड़े हैं कांच के खिलौने, मोहपाश के आगे,
टूटने तक है आशनाई, फिर न तुम्हारा, न हमारा,
रात भर चलता रहा आसमां पर, जश्न ए चिराग़ाँ,
मिल जाए दो मीठे बोल बस वहीं रहे दिल बंजारा ।
* *
- - शांतनु सान्याल
13 नवंबर, 2022
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जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (१४-११-२०२२ ) को 'भगीरथ- सी पीर है, अब तो दपेट दो तुम'(चर्चा अंक -४६११) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
असंख्य आभार मान्यवर ।
हटाएंवाह! भावपूर्ण अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंअसंख्य आभार मान्यवर ।
हटाएंउम्दा सृजन।
जवाब देंहटाएंआपका आभार आदरणीया।
हटाएंकिसे ख़बर, कौन दे जाए सहारा,
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर सृजन ।
असंख्य आभार आपका ।
हटाएंबहुत खूबसूरत कृति
जवाब देंहटाएंअसंख्य आभार आपका ।
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