न जाने कितने सहस्त्र मील दूर -
मैं चला हूँ एकाकी, नींद
आने से पहले, हर
मोड़ पर देखा
है एक नया
सपना,
कहकशां की दुनिया से टूट कर - गिरा हूँ मैं तुम्हारे रिक्त अंचल
में, ज़मीं की धूल में बिखर
जाने से पहले, न जाने
कितने देश देशान्तरों
में भटका हूँ मैं,
एक बूंद
अपनत्व को पाने से पहले, गली कूचा, गांव शहर, घाट बंदरगाह,
कहाँ नहीं तुम्हें तलाश किया, जबकि अंतरतम में बसे
थे तुम न जाने कितने
जन्म जन्मांतरों से,
अजस्र धन्यवाद
तुम्हारा, जो
तुमने
गले लगाया बहक जाने से पहले ।
* * शांतनु सान्याल
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