उतरती है शाम हर रोज़ की तरह पहाड़ों से नीचे,
देह से उतर कर,परछाइयां ढूंढती हैं रात्रि निवास,
कोई गंध है, या अदृश्य सम्मोहन, जो खींचती हैं
बरबस उसकी ओर, ह्रदय तट उठते हैं उच्छ्वास,
वो सुखद स्पर्श जो लौटा लाता है, भोर की ताज़गी,
ख़ुश्बुओं की परिधि, कोई खींच जाता है आसपास,
अंधेरे में अप्रत्याशित लरज़ते हैं, चाहतों के बादल,
कांपते ओंठों पर, आ कर रुके से होते हैं दीर्घश्वास,
अपरिभाषित है वो अनंत मधुर स्वाद की अनुभूति,
प्रकृत पलों में देह पाता है, जीने का सत्य एहसास,
* *
- - शांतनु सान्याल
21 नवंबर, 2022
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सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (22-11-22} को "कोई अब न रहे उदास"(चर्चा अंक-4618) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
असंख्य आभार आदरणीया आपका ।
हटाएंजीने का सत्य एहसास
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर रचना
असंख्य आभार आदरणीया ।
हटाएं