काश, रूह की गहराइयों में, कभी उतर कर देखते,
न जाने किस आस में रुका रहा अध खिला गुलाब,
रूबरू चश्मे आईना, कुछ देर ज़रा ठहर कर देखते,
ज़िन्दगी का कड़ुआ सच रहे अपनी जगह बरक़रार,
किसी और की ख़ातिर ही सही सज संवर कर देखते,
यूँ तो हर एक मोड़ पर हैं बेशुमार कोह आतिशफिशां,
कुछ एक कदम
मेरे हमराह कभी यूँ ही गुज़र कर देखते,
कहते हैं यक़ीं पर ही ठहरा हुआ है ये नीला आसमां,
सीना ए संदूक पर, ज़ेवर ए वफ़ा को नज़्र कर देखते,
* *
- - शांतनु सान्याल
कहते हैं यक़ीं पर ही ठहरा हुआ है ये नीला आसमां,
सीना ए संदूक पर, ज़ेवर ए वफ़ा को नज़्र कर देखते,
* *
- - शांतनु सान्याल
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(३१-१०-२०२२ ) को 'मुझे नहीं बनना आदमी'(चर्चा अंक-४५९७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंवफ़ा का ज़ेवर ही बेशकीमती है ।
जवाब देंहटाएंवफ़ा का बेशकीमती ज़ेवर ।
जवाब देंहटाएं