ऊंची इमारतों से बचते बचाते आज भी
पहुंचती है सर्दियों की नरम धूप,
पुरातन आरामकुर्सी पर
कोई हो या नहीं,
वो दे जाती
हैं ज़िंदा
होने
का सबूत, बालकनी भी जैसे जी उठता
हो उसके साथ, जी उठते हैं सभी
ज़िन्दगी के गुज़रे हुए पल,
कुछ सुरभित छुअन,
कुछ अदृश्य
सिहरन,
खिल
उठता है धुंधलाए दर्पण में मुरझाया - -
हुआ रूप, ऊंची इमारतों से बचते
बचाते आज भी पहुंचती है
सर्दियों की नरम धूप ।
फिर चिराग़ों को
है दिवाली
का
इंतज़ार, अंधेरे से उजाले की ओर फिर
ज़िन्दगी जाने को है बेक़रार, कोई
यक़ीं करे या नहीं, हर एक रात
उन्मुक्त आकाश का बाट
जोहती है ये ज़मीं,
ख़ुद को ढालना
चाहती है
वो -
आकाश गंगा के अनुरूप, अनगिनत
सितारों का सौंदर्य अनूप, ऊंची
इमारतों से बचते बचाते
आज भी पहुंचती है
सर्दियों की
नरम
धूप ।
* *
- - शांतनु सान्याल
अतृप्त अनुराग - -VIDEO FORM
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (22-10-2022) को "आ रही दीपावली" (चर्चा अंक-4588) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
असंख्य धन्यवाद व दीपावली की शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएं