उम्र ज़रा सी लम्बी हो जाती है, जब कभी हम
रखते हैं अपना सर, किसी गहन वक्ष -
स्थल पर, उस अतल गहराई को
रिश्तों में बांधना है बहुत ही
कठिन, तब ज़िन्दगी
लगती है सद्य -
स्नाता, वो
रचती है
एक
नयी परिभाषा, पुरातन शब्दों के भंवर जाल
से निकल कर, जब कभी हम रखते हैं
अपना सर, किसी गहन वक्ष -
स्थल पर। चार दीवारों के
झुरमुठ में, झर जाते
हैं सभी नीति -
मूलक
मुखौटे, देह होता है पल्लव विहीन कोई
चिनार का दरख़्त, यथार्थ का लिबास
होता है पारदर्शी, उभर आते हैं
अपने आप ऊसर भूमि,
उग आते हैं अदृश्य
कांटेदार नागफणी,
टूट जाते हैं
सभी
मानव निर्मित मिथक सेतु, चाहे जितना
भी हम चलें सधे पांव संभल कर,
उम्र ज़रा सी लम्बी हो जाती
है, जब कभी हम रखते
हैं अपना सर, किसी
गहन वक्षस्थल
पर - - -
* *
- - शांतनु सान्याल
अदृश्य सेतु के नीचे - - IN VIDEO FORM
23 अक्तूबर, 2022
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जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(२४-१० -२०२२ ) को 'दीपावली-पंच पर्वों की शुभकामनाएँ'(चर्चा अंक-४५९०) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएं