नहीं मिलते पृथ्वी और आकाश, वो
जो एक हल्की सी रेखा उभरती
है सुदूर अँधेरे और उजाले
के दरमियां, बस वही
बांधे रखती इस
ज़िन्दगी को
अपने
साथ, कुछ यादों की परछाइयां, कुछ -
सूखे ज़र्द गुलाब, इसके अलावा
कुछ भी तो नहीं मेरे पास,
मुझे मालूम है दिगंत
की सत्यता, कभी
नहीं मिलते
पृथ्वी
और
आकाश । उम्र के सभी पृष्ठ क्रमशः झर
जाते हैं आख़िर में रह जाता है देह
का कमज़ोर जिल्द बाकि, फिर
भी अनपढ़ा रहता है सांसों
का किताब, हज़ारों
से मुलाक़ात
हुई फिर
भी
हो न सका दिल का मिलाप, कहने को
यूँ तो न जाने कितने ही बार मुझ
से मिले हैं आप, फिर भी यूँ ही
बरक़रार रहा कुहासामय
एकांतवास, मुझे
मालूम है दिगंत
की सत्यता,
कभी
नहीं मिलते पृथ्वी और आकाश । इस
मेले की वास्तविकता अपनी जगह
है स्थिर, घूमते हुए हिंडोले से
लगता है सारा शहर यूँ
तो बहुत ही सुन्दर,
ज़मीं पर हो
बिखरा
हुआ
जैसे आकाशगंगा, रात ढलते ही क्रमशः
खुलने लगते हैं धीरे धीरे रेशमी
मोहपाश, पड़ी रहती है यूँ
ही बेतरतीब सी इत्र -
दानी, उड़ जाते
हैं सभी बूंद -
बूंद
सुवास, मुझे मालूम है दिगंत की सत्यता,
कभी नहीं मिलते पृथ्वी
और आकाश ।
* *
- - शांतनु सान्याल, ख़ुश्बुओं का सुराग - - IN VIDEO FORM
सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (18-10-22} को "यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:"(चर्चा अंक-4585) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
असंख्य धन्यवाद आदरणीया।
हटाएंकभी नहीं मिलते धरती और आकाश
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर सार्थक रचना
हटाएंअसंख्य धन्यवाद आदरणीया।
हटाएंअसंख्य धन्यवाद आदरणीया।
जवाब देंहटाएंबेहद भावपूर्ण अभिव्यक्ति सर।
जवाब देंहटाएंसराहनीय लेखन।
सादर।
असंख्य धन्यवाद व दीपावली की शुभकामनाएं।
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