जब कभी बढ़ जाती है मेरे अंदर की निराशा,
तब मैं ढूंढता हूँ निसर्ग का राजस्व -
विहीन आश्रय, किसी शांत
झील का किनारा, मुझ
से कहते हैं मंथर
स्रोत, कि
क्यों
न किया जाए पुनर्विचार, जीवन को संवारा
जाए दोबारा, मैं महसूस करता हूँ अंध
सितारों का आलोकमय नज़ारा,
तब मैं ढूंढता हूँ निसर्ग का
राजस्व विहीन आश्रय,
किसी शांत झील
का किनारा ।
अचानक
मैं ख़ुद
को
पाता हूँ ख़ुद के बेहद क़रीब, जहाँ जल रहे
हैं अनगिनत चिराग़, मैं लौट आता
हूँ अमावस की रात से पूर्णिमा
की ज़मीं पर, भूल कर
सभी राग विराग,
अनुभव करता
हूँ बच्चों
की
किलकारियों में कहीं पक्षियों का अनुनाद,
मिल जाता है ज़िन्दगी को जीने का
सहारा, मैं महसूस करता हूँ
अंध सितारों का
आलोकमय
नज़ारा ।
* *
- - शांतनु सान्याल
राजस्व विहीन आश्रय - - - in video form
24 अक्टूबर, 2022
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सुन्दर रचना। दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ l
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 25 अक्तूबर 2022 को साझा की गयी है....
जवाब देंहटाएंपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंगगन में तारे टिमटिमाते । धरा पर दीप झिलमिलाते ।
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