कांच के बक्सों में हैं बंद तमाम गुड़ियाघर,
चीनी मिट्टी के वो सभी काचित रिश्ते,
भावशून्य नज़रों से देखते हैं एक
दूसरे को, खोजते हैं अक्सर
जुगनुओं के ठिकाने,
कदाचित कहीं
कोई जी
रहा
हो घुप्प अंधेरे में अकेला, दिवाली की रात
है रंग मशालों के बीच कहीं खो जाते
हैं आसपास के धूसर चेहरे, रुक
जाता है बैठकख़ाने तक आ
कर हमारा प्रगतिशील
सफ़र, कांच के
बक्सों में
हैं बंद
तमाम गुड़ियाघर । बिखरे पड़े रहते है राज
पथ के दोनों तरफ बुझे हुए आतिशों
के कंकाल, मध्य रात, फुटपाथ
पर सो रहा है कोई टूटी हुई
बेँच पर, ख़्वाबों की
मैली चादर
डाल,
थम चुकी है आतिशबाज़ी, धुंधला धुंधला
सा है चंद्र विहीन आकाश, लोग फिर
उलझे हुए हैं एक दूसरे में तलाश
करते हुए तुरूफ़ का इक्का,
उनके लिए है अभी
तो बाहर की
दुनिया
केवल अर्थहीन और बकवास, जुगनुओं की
भला कोई ज़िन्दगी है, वो भी रात
ढलते उड़ जाएंगे मृत
तितलियों की
डगर,
कांच के बक्सों में हैं बंद तमाम गुड़ियाघर ।
* *
- - शांतनु सान्याल
अनजान डगर के जुगनू - - IN VIDEO FORM
बहुत ही सुन्दर भावपूर्ण सार्थक रचना। आपको और आपके परिवार को दीपोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंआपका असीम आभार आदरणीया ।
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