कितना भी अमूल्य क्यों न हो सुनहरे
फ्रेम में जड़ा हुआ आईना, शून्य
से अधिक उसकी क़ीमत
नहीं होती, अगर
कोई न हो उसे
निहारने
वाला,
निष्प्राण झूलती रहती है स्मृति स्तंभ
पर बंद दीवार घड़ी, समय नहीं
रुकता चाहे कोई हो या न
हो पुकारने वाला। इसी
पृथ्वी के हैं हम
अधिवासी,
इसी के
सीने
में है कहीं अंतिम विश्रामगृह, चाहे हो
आकाश पथ पर, या ज़मीं के नीचे
अपना ठिकाना, हम से ही है
गुलज़ार यहाँ मुहोब्बत
का चमन, हमारे
सिवा कोई
नहीं इस
को
सँवारने वाला, कितना भी अमूल्य - -
क्यों न हो सुनहरे फ्रेम में जड़ा
हुआ आईना, शून्य से
अधिक उसकी क़ीमत
नहीं होती, अगर
कोई न हो उसे
निहारने
वाला।
न जाने किस मायावी स्वर्ग की लोग
बात करते हैं अभी तो जीवन का
सफ़र अधूरा है, इसी गृह में
है जीना मरना, इसी
में है दोबारा
लौट के
आना,
मुक्ति रेखा है बेहद जटिल, नेहों की -
भाषा है सरल, भावों से भरा -
पूरा, हमारे आलावा कोई
नहीं हम को राह
दिखाने वाला,
कितना
भी अमूल्य क्यों न हो सुनहरे फ्रेम में
जड़ा हुआ आईना, शून्य से
अधिक उसकी क़ीमत
नहीं होती, अगर
कोई न हो उसे
निहारने
वाला।
* *
- - शांतनु सान्याल
28 अक्टूबर, 2022
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