वो एक दरवाज़ा है जो मुद्दतों से कभी खुला
ही नहीं, बेरंग, ज़र्द, कुहासा रंगी कोई
उतरन, अन्तःस्थल में है एक
विस्तीर्ण मरुद्यान, न
कोई चाबी न ही
कोई कुलूप
से बंधा
हुआ है अंतरतम का द्वार, सिर्फ आगंतुक
का है इंतज़ार, ये वो पांथशाला है जहाँ
हर किसी को मिलता है शरण,
क्या हुआ जो बाहर से
लगता है, बेरंग,
ज़र्द, कुहासा
रंगी कोई
उतरन ।
वो
सभी सीढ़ियां जो ले जाती हैं गहन से - -
गहनतम की ओर, काञ्चन काया
पड़ी रहती है दर्शक विहीन मंच
के उपर एकाकी, निःशब्द
रूह बढ़ जाती है किसी
अज्ञात भोर की
ओर, पड़े
रहते
हैं
कुछ पुष्प गुच्छ दहलीज़ के उपर, थम से
जाते हैं एक ही पल में सभी चिराग़ों
के उष्ण सिहरन, उड़ जाती हैं
तितलियाँ सुदूर कहीं,
छोड़ कर रेशमी
कोष का
उतरन ।
* *
- - शांतनु सान्याल
07 अक्तूबर, 2022
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सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (9-10-22} को "सोने में मत समय गँवाओ"(चर्चा अंक-4576) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
असंख्य धन्यवाद मान्यवर / आदरणीया।
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