11 अक्टूबर, 2022

अंतःस्थ ध्वनि - -

आधी रात, जब तेज़ बारिश रुकी, छत
से उतरती हुई बूंदों का टुप टाप और
अंतःस्थ घड़ी की टिक टिक के
मध्य, ज़िन्दगी मणियों
का गणन करती
रही, वो सभी
चेहरे जो
कल
तक थे बहुत ही चमकीले, धीरे धीरे -
दूर कोहरे में कहीं गुम से हो गए,
अपाहिज भावनाएं फिर भी
उनका अंध - अनुसरण
करती रही, अंतःस्थ
घड़ी की टिक -
टिक के
मध्य,
ज़िन्दगी मणियों का गणन करती - -
रही । काश गुज़रा वक़्त लौट आता ठीक
जैसे लौट आती है दिवाली हर
वर्ष, कभी पहले कभी कुछ
देर से, जल उठते हैं
बुझे हुए सभी
रंग मशाल,
अंतःस्थ
घड़ी
अब ज़रा सी आहट से चौंक जाती है, न
जाने किस पल रुक जाए सांसों का
सफ़र, फिर भी हम टूटते
तारों से कहीं आगे
बढ़ना चाहते
हैं, देखते
हैं एक
टक आकाश को, ठीक उसी तरह बचपन
में कभी देखा था, गुड्डे गुड्डियों का
शहर, एक पिघलता हुआ
अहसास, चीभ में
कहीं ज़रा से
चिपके
हुए,
पिपरमिंट का ठंडा सा स्वाद, ख़्वाब के - -
अबेकस में कहीं, बूंद बूंद चाँदनी
मुझ से मेरा ही हरण करती
रही, अंतःस्थ घड़ी की
टिक - टिक के
मध्य,
ज़िन्दगी मणियों का गणन करती - - - -
* *
- - शांतनु सान्याल










 

2 टिप्‍पणियां:

  1. ज़िन्दगी मणियों का गणन करती - -
    रही । काश गुज़रा वक़्त लौट आता ठीक
    जैसे लौट आती है दिवाली हर
    वर्ष, कभी पहले कभी कुछ
    देर से, जल उठते हैं
    बुझे हुए सभी
    रंग मशाल,


    काश ! गया वक़्त गुजर आता। बहुत सुंदर अभिव्यक्ति सर,सादर नमन

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