ज़िन्दगी क्या है ये सोचने का समय ही नहीं
मिलता, हम बिना सोचे ही गुज़र जाते
हैं बहुत दूर तक, अचानक चेहरे
की झुर्रियों को देख ठिठक
जाते हैं, बहुत देर के
बाद हम अक्स
के क़रीब
होते
हैं लेकिन उसे पहचान नहीं पाते, हम जान के
भी ख़ुद को जान नहीं पाते। आईने के उस
पार हैं सभी रिले रेस के सह खिलाड़ी,
अपनी अपनी कामयाबी का
जश्न मनाते हुए, हमारे
हिस्से की धूप से
हमें कोई भी
शिकायत
नहीं,
ज़रूरी नहीं कि दिल मिल जाए किसी से हाथ
मिलाते हुए, उजालों की चाहत किसे नहीं
होती, लेकिन ये भी सच है कि हर
एक सुबह को लोग मेहरबान
नहीं पाते, हम जान के
भी ख़ुद को जान
नहीं पाते।
* *
- - शांतनु सान्याल
video form of आईने के उस पार - -
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (15-10-2022) को "प्रीतम को तू भा जाना" (चर्चा अंक-4582) पर भी होगी।
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कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
असंख्य धन्यवाद मान्यवर ।
हटाएंभावपूर्ण लेखन
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद आदरणीया।
हटाएंसुंदर भावपूर्ण सत्य को साकार करती रचना
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद आदरणीया।
हटाएंहमेशा की तरह सराहनीय सृजन।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर वीडियो रचना को आप स्वर देते तब और भी प्रभावी लगती।
सादर
असंख्य धन्यवाद मान्यवर / आदरणीया।
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