असंकलित ही रहा सारा जीवन,
हालाकि उसने संग्रह करना
चाहा बहोत कुछ, दर -
असल, नियति
से अधिक
पाना
व्यतिक्रम से ज्यादा कुछ भी - -
नहीं, कब उठ जाए सभी
रंगीन ख़ेमे कहना
है बहोत
मुश्किल,फिर वही ख़ाली बर्तन !
अध झुकी सुराही, कहाँ
मुमकिन है, स्थायी
ठौर मेरे हमराही,
जहाँ थी
आबाद कभी, इक मुश्त ख़्वाबों
की ज़मी, आँख खुलते
ही देखा बियाबां
के सिवा
कुछ भी नहीं, और मीलों लम्बी
थी तन्हाई !
* *
- शांतनु सान्याल
http://sanyalsduniya2.blogspot.in/
http://www.jocastilloart.com/Resources/2011/11002ollas_pots.jpg
हालाकि उसने संग्रह करना
चाहा बहोत कुछ, दर -
असल, नियति
से अधिक
पाना
व्यतिक्रम से ज्यादा कुछ भी - -
नहीं, कब उठ जाए सभी
रंगीन ख़ेमे कहना
है बहोत
मुश्किल,फिर वही ख़ाली बर्तन !
अध झुकी सुराही, कहाँ
मुमकिन है, स्थायी
ठौर मेरे हमराही,
जहाँ थी
आबाद कभी, इक मुश्त ख़्वाबों
की ज़मी, आँख खुलते
ही देखा बियाबां
के सिवा
कुछ भी नहीं, और मीलों लम्बी
थी तन्हाई !
* *
- शांतनु सान्याल
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कविता पसंद करने के लिए असंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
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