बहोत फीके फीके से लगे झूलते
सुनहरे अमलतास, न जाने
कैसा दर्द दे गया कोई,
गहराता रहा
हर पल
जीवन में एकाकीपन, वैसे तो -
जन अरण्य था यथावत
मेरे आसपास,
वीथिका
के दोनों तरफ, वन्य कुसुमों से
लदी डालियों से छलक
रहे थे मदिर गंध,
न जाने
फिर भी बहोत नीरस था तुम -
बिन मधुमास, तृष्णा
मेरी रही अनबुझ,
अपनी जगह,
मरू प्रांतर
की तरह, कहने को बारम्बार -
पिघलता रहा आकाश !
* *
- शांतनु सान्याल
http://sanyalsduniya2.blogspot.in/
Autom-Acrylic-on-Canvas-Painting-by-Bhawana-Choudhary
सुनहरे अमलतास, न जाने
कैसा दर्द दे गया कोई,
गहराता रहा
हर पल
जीवन में एकाकीपन, वैसे तो -
जन अरण्य था यथावत
मेरे आसपास,
वीथिका
के दोनों तरफ, वन्य कुसुमों से
लदी डालियों से छलक
रहे थे मदिर गंध,
न जाने
फिर भी बहोत नीरस था तुम -
बिन मधुमास, तृष्णा
मेरी रही अनबुझ,
अपनी जगह,
मरू प्रांतर
की तरह, कहने को बारम्बार -
पिघलता रहा आकाश !
* *
- शांतनु सान्याल
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