14 नवंबर, 2014

कुछ भी नहीं निःशर्त - -

,
इस दुनिया में कुछ भी नहीं
निःशर्त, हर कोई चाहे
किसी न किसी
रूप में
प्रतिदान,  कुछ भी नहीं यहाँ - -
शाश्वत, उस पल मुझे
उसकी बातें लगी
थीं बहुत ही
विषाक्त,
निर्मम समय और स्व - छाया
ने समझाया, मुझे जीवन
का कड़वा सच,
ढलती उम्र
के साथ
सभी रिश्ते नाते, धीरे धीरे खो -
जाते हैं कहीं, ठीक, जाड़े
की धूप की तरह,
ज़रा देर
के लिए, औपचारिकता निभाते
हुए छू जाते हैं, ईशान -
कोणीय गलियारा,
केवल कुछ
पलों के लिए इक गर्म अहसास,
साथ रह जाती है लम्बी
ठिठुरन भरी रात
और एक दीर्घ
निःश्वास।

* *
- शांतनु सान्याल 

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