वो मिले इक ज़माने के बाद, ये सच है
लेकिन, आज भी कहीं उनकी
आँखों में है इक मुन्तज़िर
तिश्नगी। वक़्त
उतार देता
है हर
इक मुलम्मा मेरे दोस्त, आईने से -
शिकायत है बेमानी, न जाने
किस जानिब बह गए वो
तमाम दावा - ए -
वाबस्तगी।
फिर भी
अच्छा
लगता है, इक ज़माने के बाद तुमसे
मिलना ऐ लापता ज़िन्दगी।
* *
- शांतनु सान्याल
लेकिन, आज भी कहीं उनकी
आँखों में है इक मुन्तज़िर
तिश्नगी। वक़्त
उतार देता
है हर
इक मुलम्मा मेरे दोस्त, आईने से -
शिकायत है बेमानी, न जाने
किस जानिब बह गए वो
तमाम दावा - ए -
वाबस्तगी।
फिर भी
अच्छा
लगता है, इक ज़माने के बाद तुमसे
मिलना ऐ लापता ज़िन्दगी।
* *
- शांतनु सान्याल
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