न जाने कितने सालों से स्वयं के संग
कर रहा हूँ निर्वाह, फिर भी ख़ुद
से हूँ अनभिज्ञ, आदमक़द
आईना बन चली है
दोपहर की
धूप,
आईना की परछाई से ख़ुद को हटा कर
मैं देखता हूँ, दीवार घड़ी की ओर,
अब उसके माथे से चहचाती
चिड़िया बाहर नहीं
निकलती,
शायद
वो
मर चुकी है, रूपकथाओं में लोग मर के
तारे हो जाते हैं, शब्दों के आकाश
में कहीं मिल जाए उसका
ठिकाना, किताबी
जिल्दों की
तरह,
लोग भी उतर जाते हैं अगले स्टेशन में
चुपचाप, हम बेवजह खोजते हैं,
पुस्तक के पृष्ठों में कहीं
उनका ग़लत पता,
डायरी के
पृष्ठों
में, कहीं रहा करता था, एक मयूर पंख,
कई बार उसे उलट पलट के देखा,
वो जैसा था वैसा ही रहा,
लेकिन कुछ दिनों से
है वो लापता,
कहते हैं
लोग,
कि दूरत्व अपनापन बढ़ा जाती है इस
लिए, निर्वासन का रास्ता चुना है
मैंने, अपने अस्तित्व से
द्वीपान्तर, तिमिर
से उद्भासन की
ओर, रूप -
कथा
से
निकल कर, धूसर धरातल की विषम
घाटियों के मध्य, आत्म - संधान
की ओर - -
* *
- - शांतनु सान्याल
28 नवंबर, 2020
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