समानांतर चलते रहे हम, बहुत दूर
तक, रेल की पटरियों पर,
थामे हुए एक दूसरे
के हाथ, पता
ही न चला
कब
समय की धुंध ने, खींच दी तिर्यक
रेखा हमारे दरमियां, निःशब्द
टूट गया तथाकथित, कई
जन्मों का साथ।
हम अविरल
बहते रहे
अपने
अपने गहन अन्तःकरण के बहाव
में, मौसम की पवन चक्की
में घूमते रहे, तारीख़ों
के अंक, ख़ाली
होते चले
गए
कैलेण्डर के पृष्ठ, रह गए केवल -
कुछ क्रास के निशान, धँस
चुकी है, आधे से कहीं
ज़्यादा, ज़िन्दगी
की कगार,
नदी
के
अंदरूनी, अदृश्य कटाव से। इस
सतत बहती, अंतःस्रोत के
तट पर बसते हैं कहीं,
आज भी कुछ
जुगनुओं
की
बस्तियां, शैशव से वार्धक्य तक
पहुँचना भी अपनी जगह है
संग्राम, न जाने कितने
ख़्वाबों ने उभारा, न
जाने कितने
यर्थाथ
ने
डुबोया फिर भी, निरंतर तैरती
रहीं काग़ज़ की कश्तियाँ,
हर चीज़ रहेंगी अपनी
जगह यथावत,
कोई फ़र्क़
नहीं
पड़ता इस जगत में किसी के
जुड़ाव या अलगाव से,
उष्णता और प्रीत
के मध्य है
अदृश्य
सेतु,
जब तक है आग, तब तक हर
कोई रहता है, जुड़ा हुआ
अलाव से, फिर वही
तन्हाइयों का
सफ़र,
बढ़ती हुई परछाइयों का शहर,
ज़िन्दगी तलाश करती है
एक पल सुकून का
तंग हो कर
दुनिया
के
अंतहीन मोल भाव से, कोई फ़र्क़
नहीं पड़ता इस जगत में
किसी के जुड़ाव या
अलगाव से - -
* *
- - शांतनु सान्याल
30 नवंबर, 2020
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वाह
जवाब देंहटाएंतहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 30 नवंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंतहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंबहुत सुंदर अभिव्यक्ति शांतनु जी...।
जवाब देंहटाएंतहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंबहुत ही सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंतहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंबहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएंतहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
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