निष्पलक देखता रहा मैं, जलता बुझता
रहा, कल रात भर, निर्मेघ आकाश,
अर्धोष्ण तंदूरों में, कहीं सो से
गए, सिमटे हुए मधुमास,
न जाने कौन शख़्स
था, कुछ उजला
कुछ छुपा
हुआ,
बांटता नज़र आया, सुनसान सड़क में
रोटियों के शक्ल में झरता हुआ
अमलतास, धुंध की चादर
ओढ़े सो रहा है सारा
शहर किसी
हिमशैल
के
नीचे, कांपते से हैं आधीरात के उनींदे
ख़्वाब, काश मिल जाता, उन्हें भी
नीम गर्म कोना, बंद आँखों
के आसपास, उस तंदूर
की राख में हैं कुछ
अपरिभाषित
पलों का
हिसाब,
जो
सुबह की रौशनी में बन न सकेंगे - -
अख़बारों के सुर्ख़ उन्वान, कुछ
प्रश्न बुझ जाते हैं अपने
आप, कोई रुक कर
नहीं देगा उनका
जवाब,
सभी
दौड़ चले हैं ज़िन्दगी की प्रतियोगिता
में, किसी के पास नहीं है पल
भर का अवकाश, अर्धोष्ण
तंदूरों में, कहीं सो से
गए, सिमटे हुए
मधुमास - -
* *
- - शांतनु सान्याल
28 नवंबर, 2020
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निष्पलक देखता रहा मैं, जलता बुझता
जवाब देंहटाएंरहा, कल रात भर, निर्मेघ आकाश,
अर्धोष्ण तंदूरों में, कहीं सो से
गए, सिमटे हुए मधुमास,
न जाने कौन शख़्स
था, कुछ उजला
कुछ छुपा
हुआ,
वाह! सुंदर।
तहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंतहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंवाह
जवाब देंहटाएंतहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
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