जब आईना देखने की उम्र थी, तब
हम ख़ुद को सजा ही न सके,
वही मध्यमवर्गीय दृष्टि -
कोण, लोग क्या कहेंगे,
छुप के यूँ ही देखते
रहे वसंत को
पतझर में
ढल
जाते हुए, बहुत कुछ था हमारे दिल
में, खुल के तुम्हें कभी बता ही
न सके, ख़ुद को जी भर के
सजा ही न सके, वो
ख़ामोशी, जो
लिखता
रहा
अंतर्मन की पृष्ठों में, अप्रकाशित -
अनुभूति, सीने में कहीं जमती
रहीं बूंद बूंद किसी अदृश्य
दिव्यता की स्तुति,
उस अलौकिक
रोमांच की
छवि
हम चाह कर भी तुम्हें दिखा न सके,
बहुत कुछ था हमारे दिल में,
खुल के तुम्हें कभी बता
ही न सके, मुड़ के
देखा है, तुम्हें
कई बार
दूर
तक, बहते हुए से लगे सभी शब्दों -
के भीड़, भीगते रहे सभी अप्रेषित
पत्र, अतीत के सीढ़ियों में,
भीगता रहा पलकों
का गाँव, फिर
भी देह और
प्राण सूखे
रहे,
हमने चाहा कि मुस्कुराएं दिल की -
गहराइयों से, लेकिन चाह कर
भी हम उन्मुक्त मुस्कुरा
न सके, सब कुछ
भुला कर
बहुत
कुछ भुला ही न सके, हम ख़ुद को
जी भर के कभी सजा -
ही न सके - -
* *
- - शांतनु सान्याल
13 नवंबर, 2020
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past
-
नेपथ्य में कहीं खो गए सभी उन्मुक्त कंठ, अब तो क़दमबोसी का ज़माना है, कौन सुनेगा तेरी मेरी फ़रियाद - - मंचस्थ है द्रौपदी, हाथ जोड़े हुए, कौन उठेग...
-
कुछ भी नहीं बदला हमारे दरमियां, वही कनखियों से देखने की अदा, वही इशारों की ज़बां, हाथ मिलाने की गर्मियां, बस दिलों में वो मिठास न रही, बिछुड़ ...
-
मृत नदी के दोनों तट पर खड़े हैं निशाचर, सुदूर बांस वन में अग्नि रेखा सुलगती सी, कोई नहीं रखता यहाँ दीवार पार की ख़बर, नगर कीर्तन चलता रहता है ...
-
जिसे लोग बरगद समझते रहे, वो बहुत ही बौना निकला, दूर से देखो तो लगे हक़ीक़ी, छू के देखा तो खिलौना निकला, उसके तहरीरों - से बुझे जंगल की आग, दोब...
-
उम्र भर जिनसे की बातें वो आख़िर में पत्थर के दीवार निकले, ज़रा सी चोट से वो घबरा गए, इस देह से हम कई बार निकले, किसे दिखाते ज़ख़्मों के निशां, क...
-
शेष प्रहर के स्वप्न होते हैं बहुत - ही प्रवाही, मंत्रमुग्ध सीढ़ियों से ले जाते हैं पाताल में, कुछ अंतरंग माया, कुछ सम्मोहित छाया, प्रेम, ग्ला...
-
दो चाय की प्यालियां रखी हैं मेज़ के दो किनारे, पड़ी सी है बेसुध कोई मरू नदी दरमियां हमारे, तुम्हारे - ओंठों पे आ कर रुक जाती हैं मृगतृष्णा, पल...
-
बिन कुछ कहे, बिन कुछ बताए, साथ चलते चलते, न जाने कब और कहाँ निःशब्द मुड़ गए वो तमाम सहयात्री। असल में बहुत मुश्किल है जीवन भर का साथ न...
-
वो किसी अनाम फूल की ख़ुश्बू ! बिखरती, तैरती, उड़ती, नीले नभ और रंग भरी धरती के बीच, कोई पंछी जाए इन्द्रधनु से मिलने लाये सात सुर...
-
कुछ स्मृतियां बसती हैं वीरान रेलवे स्टेशन में, गहन निस्तब्धता के बीच, कुछ निरीह स्वप्न नहीं छू पाते सुबह की पहली किरण, बहुत कुछ रहता है असमा...
सुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंदीपावली की असंख्य शुभकामनाएं, हार्दिक आभार - - नमन सह।
हटाएंबहुत सुंदर। लाजवाब।
जवाब देंहटाएंदीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं 🌻
दीपोत्सव की असंख्य शुभकामनाएं ।
जवाब देंहटाएंजब आईना देखने की उम्र थी, तब
जवाब देंहटाएंहम ख़ुद को सजा ही न सके,
वही मध्यमवर्गीय दृष्टि -
कोण, लोग क्या कहेंगे,
छुप के यूँ ही देखते
रहे वसंत को
पतझर में
ढल
जाते। यथार्थ को प्रस्तुत करती कविता बहुत सुंदर
दीपोत्सव की असंख्य शुभकामनाएं । हार्दिक आभार - - नमन सह।
हटाएंशुभ हो दीपोत्सव सभी के लिये मंगलकामनाएं।
जवाब देंहटाएंदीपोत्सव की असंख्य शुभकामनाएं ।
हटाएंदीपोत्सव की असंख्य शुभकामनाएं । हार्दिक आभार - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंसुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंदीपोत्सव की असीम शुभकामनाएँ
दीपोत्सव की असंख्य शुभकामनाएं । हार्दिक आभार - - नमन सह।
हटाएंअंतर्मन के पृष्ठों में,अप्रकाशित अनुभूति..बहुत ख़ूब कहा आपने..सुंदर रचना ..।
जवाब देंहटाएंदीपोत्सव की असंख्य शुभकामनाएं । हार्दिक आभार - - नमन सह।
हटाएं