07 नवंबर, 2020

पहला सफ़र - -

ज़िन्दगी का सिक्का उछलता रहा
नियति के हाथ, कभी हम
खड़े थे, वृद्ध शिरीष के
नीचे एक साथ,
और कभी
थे हम
बंदी, छद्मवेशी समय के हाथ, अभी
तक सूख रहे हैं कुछ जलरंग
छवि, स्मृति के छतों में,
जिन्हें हम छोड़ गए
उनके भाग्य के
साथ, अभी
तक
हैं झूलते हुए कुछ पतंग के ढांचे - -
आसां नहीं पिछला पहर भूल
जाना, न जाने कितनी
ख़ूबसूरत वादियों से
मिले, कितने ही
विशालकाय  
नदियों
के
मुहानों से बात की, सागर तट से
उठाए सीपों के आलोकित
रूह, बहुत कोशिशें की
लेकिन मुश्किल
था पहला
सफ़र
भूल
जाना, आसां नहीं पुराना घर भूल
जाना।

* *
- - शांतनु सान्याल
 
 


13 टिप्‍पणियां:

  1. "आसां नहीं पुराना घर भूल जाना" ये बहुत बड़ा सत्य है , इसको नकारा नहीं जा सकता है।
    बहुत सुंदर सृजन!

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  2. जय मां हाटेशवरी.......

    आप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
    आप की इस रचना का लिंक भी......
    08/11/2020 रविवार को......
    पांच लिंकों का आनंद ब्लौग पर.....
    शामिल किया गया है.....
    आप भी इस हलचल में. .....
    सादर आमंत्रित है......


    अधिक जानकारी के लिये ब्लौग का लिंक:
    https://www.halchalwith5links.blogspot.com
    धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं
  3. सागर तट से उठाए सीपों के आलोकित रूह,
    बहुत कोशिशें की
    लेकिन मुश्किल था पहला सफ़र भूल जाना,
    आसां नहीं पुराना घर भूल जाना।

    बहुत बढ़िया कविता
    साधुवाद 🙏
    सादर,
    डॉ. वर्षा सिंह

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