ह्रदय के आलोक से खोजता हूँ
मैं, कुहासे में गुम ज़िन्दगी
को, लौट ही आएगा,
वो इक दिन इस
जर्जर, अन्तः
स्थल में,
सुख
की तितलियाँ, नीहार बिंदुओं
में खोजती हैं, घर अपना,
सूरज उगते ही सब
कुछ है स्फटिक
जल, क्या
असली
और
क्या सपना, कितना भी क्यों
न कर लें संचय, अंतिम
प्रहर, कुछ भी नहीं
रहता है, अपने
दोनों करतल
में। उस
एक
बिंदु जल में है सप्त सिन्धुओं
की गहराई, जो जीवन को
जीत गया वही समझ
लो सर्व सीमा पार
हुआ, इस
सार में
है
पृथ्वी की अंतर ज्वाला इन्हीं
शब्दों में है कहीं, शाश्वत
प्रणय की परछाई,
एक बिंदु जल
में है सप्त
सिन्धुओं
की
गहराई। सम्मुख मेरे है खुला
हुआ प्रवेश द्वार, उतरें
सभी छद्मावरण, अब
हूँ मैं, एक निर्वस्त्र
निःसंकोच
शिशु !
तुम
हो फिर आतुर पुनर्ग्रहण के -
लिए, गर्भ गृह के उस
पार, सम्मोहित
सा है देख
जिसे
सारा त्रिभुवन, उद्वेलित सा
है जीवन पारावार।
* *
- - शांतनु सान्याल
27 नवंबर, 2020
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वाह
जवाब देंहटाएंतहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंजीवन का सूक्ष्म दर्शन और संपूर्ण सार।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर और सार्थक लेखन सर।
सादर।
तहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
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