अपूर्णता ही कल तक ले जाती है
कुछ नया पाने के लिए, प्रातः
से अपरान्ह, साँझ से
निशीथ, सब एक
ही तार में हैं
पिरोए
से,
रंग बिरंगे, उजालों के बिंदू दौड़ -
रहे हैं, रिक्त स्थान पाने के
लिए, जीवन का दीप -
पर्व नहीं रुकता
किसी एक
चिराग़
के
बुझ जाने से, जन्म से तारुण्य -
प्रौढ़ता से वार्धक्य तक, एक
अदृश्य रिले दौड़ सी है
ज़िन्दगी, कुछ
अधिक पल
जीत
जाने के लिए, कुछ नया पाने के
लिए, इक अजीब सी अनबुझ
प्यास रहती है, हर एक
मक़ाम पर, कभी
पांव रहते हैं
प्रारंभ -
रेखा पर, और कभी नियति होती
है लकीर ए अंजाम पर, वक़्त
के हाथों में रहती है
हमेशा अदृष्ट
सीटी, हमें
सहसा
चौंकाने के लिए, जय पराजय - -
कौन ढूंढे हाथ की रेखाओं
में, लेकिन दौड़ना
ज़रूरी है,
रिक्त
स्थान पाने
के लिए।
* *
- - शांतनु सान्याल
09 नवंबर, 2020
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जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह।
हटाएंबहुत बढ़िया।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह।
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह।
हटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन सृजन सराहना से परे आदरणीय सर।
जवाब देंहटाएंसादर
हार्दिक आभार - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह।
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