चाँदनी रात को ढूंढते हैं दरख़्तों के
साए, आख़री पहर से पहले
कोई उम्र मेरी बढ़ा जाए,
अहसास की परतों
पर गिरते हैं
बूंद बूंद
तेरे
ओंठों के उजाले, ज़िन्दगी ने फिर
छुआ है कोई मोह का चुम्बक,
प्यास कुछ और बढ़ा गए
अंधेरों के प्याले, न
कोई इसे बांधें,
तिलिस्म
के
धागे, ये मुहाजिर परिंदा है किसे
ख़बर, कल अपना वतन
चला जाए, आख़री
पहर से पहले
कोई उम्र
मेरी
बढ़ा जाए, ये ख़्वाबों का है मीना -
बाज़ार, कहकशां के दोनों
तरफ़ हैं ख़रीदार, जो
चाहे ख़रीद लो
इसके पहले
कि ये
रौशनी का शहर सुबह से पहले यूँ
ही न मिटा दिया जाए, आख़री
पहर से पहले कोई उम्र
मेरी बढ़ा
जाए।
* *
- - शांतनु सान्याल
06 नवंबर, 2020
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सुन्दर
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
हटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 07 नवंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
हटाएंये मुहाजिर परिंदा है किसे
जवाब देंहटाएंख़बर, कल अपना वतन
चला जाए,
–ओह्ह.. चिंतनीय
हार्दिक आभार - - नमन सह ।
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