08 नवंबर, 2020

विलुप्त मानव - -

न जाने कितने चेहरे कुम्हला गए,
न जाने कितने लोग उजाड़
दिए गए, कहीं कोई
उनके अस्तित्व
का उल्लेख
नहीं,
तुमने वहीँ आज बनाया है तफ़रीह
गाह, हर तरफ हैं सिर्फ़ तुम्हारे
चर्चे, एक से बढ़ कर एक
हैं भाटों के जय गान,
कितने गाँव
डूबे,
कितने ही स्वप्न बहे उन पर कहीं
कोई शिलालेख नहीं, कहीं
कोई उनके अस्तित्व
का उल्लेख नहीं,
समाधिस्थ
हैं, न
जाने
कितने विप्लव असमय ही काल
के सीने में, सिंहासन के उस
वीभत्स खेल में किसे
फ़र्क़ पड़ता है
किसी के
जीने
या
मरने में, हम वो विरल प्राणी हैं
जो सांस तो लेते हैं, लेकिन
जीवाश्म से अधिक कुछ
भी नहीं, अस्तित्व
भी रखते हैं कहीं
इसका भी
कोई
प्रमाणित आलेख नहीं, कहीं कोई
हमारी मौजूदगी का उल्लेख
नहीं - -

* *
- - शांतनु सान्याल

4 टिप्‍पणियां:

अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past