तुम कवि हो इसलिए दुःखी हो,
तुम कुछ ज़्यादा ही सोचते
हो, तुम्हारे सभी दोस्त
हैं सिर्फ़ काल्पनिक
चरित्र, रात -
दिन
तुम उन्हीं से खेलते हो, तुम -
कुछ ज़्यादा ही सोचते
हो, तुम अदृश्य
मीनार तक
पहुँचने
का
सिर्फ़ एक जरिया हो, ओस
में भीगे हुए एक हरित
पायदान हो जिससे
लोग पाँव पोंछ
कर चढ़
जाते
हैं
अदृश्य बुर्ज पर, तुम धूप का
इंतज़ार करते हो, तुम
कुछ ज़्यादा ही
सोचते
हो,
तुम्हारे पास हैं असंख्य शब्दों
की मिल्कियत, भावनाओं
का गुप्त कुबेर धन
फिर भी प्रेयसी
का दिल
नहीं
जीत पाते हो, जीवन की शब्द
पहेली रहती है अधूरी, तुम
हर बार प्यादा की
तरह शहीद
हो जाते
हो,
तुम कुछ ज़्यादा ही सोचते हो।
* *
- - शांतनु सान्याल
08 नवंबर, 2020
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आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 08 नवंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह।
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह।
हटाएंसुंदर
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह।
हटाएंवाह! सराहना से परे कवि मन को बहुत ही सुंदर उकेरा है।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन 👌
हार्दिक आभार - - नमन सह।
हटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंलाजवाब....
जवाब देंहटाएंउम्दा रचना !!!
हार्दिक आभार - - नमन सह।
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