18 नवंबर, 2020

मिथक परावर्तन - -

निस्पृह रहना सहज नहीं सीने में
छुपाए सदियों का प्रज्वलन,
उन्माद हवाओं के
सामने एक
बूंद
ओस और कमल पत्र का सिहरन
समय की रफ़्तार मौक़ा नहीं
देती बार बार, लहरों के
पांव तले खिसकता
जाए रेत का
संसार,
कुछ भी नहीं आसपास, फिर भी
बेतहाशा दौड़ता जाए, सपनों
का हिरन, कंक्रीट का
शहर है, ज़मीं के
नीचे हैं सभी
कुछ
समाधिस्थ, प्राचीन शिलालेख -
के साथ सो रहा है, महारुद्र
विप्लेश्वर ! जगाना
है जिन्हें निषेध,
रतजगा
समुद्र
निगलना चाहता है सभ्यता के  
आख़री निशान, दूर तक
है नियॉन का प्रकाश,
फिर भी अदृश्य
है जीवन,
सभी
आलोक पुञ्ज मृगजल में खो
गए, आकाश पार कुंडलित
हैं, शीत निद्रा में कहीं
उजालों के अग्र -
लेख, सुबह
का
अख़बार, वही टूटी सुई के नीचे
घूमता हुआ चाणक्य चक्र,
सम्राट का दिया हुआ
मिथक परावर्तन,
फिर हम चल
पड़े हैं उसी
उड़ान
पुल
से, छूने के लिए पुनः एक बार
उभरता हुआ खोखला
दिन !

* *
- - शांतनु सान्याल
 
 
 





8 टिप्‍पणियां:

  1. समय की रफ़्तार मौक़ा नहीं
    देती बार बार, लहरों के
    पांव तले खिसकता
    जाए रेत का
    संसार,
    जीवन्त अनुभूतियों का सांसारिकता से सामंजस्य लिए अद्भुत सृजन । नमन आपकी लेखन शैली को..भावों से लबरेज़ अत्यंत सुन्दर अभिव्यक्ति ।

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  2. आपकी रचनाएं गहन भाव समेटे थोड़ी रहस्यवादी हो जाती है जो हमेशा पाठक के दिमाग पर छा जाती है।
    बहुत सुंदर सृजन।

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