बाह्य जगत है आलोकमय, अंतरिक्ष
से उतर आए हैं असंख्य नक्षत्र,
लेकिन अंदर का सुरंग है
यथावत आलोक -
विहीन, सब
दौड़
चले हैं स्वर्ण मृग के पीछे, मायावी - -
रात उनके पीछे, दूर तक नहीं
कोई लक्ष्मण रेखा, सघन
अरण्य, अभिलाषित
तृषा है अंतहीन,
अविराम
आखेट,
न
जाने किस क्षितिज पर है जागरण,
मुझे मालूम है तुम भी हो इस
रात के एकाकी यात्री,
तलाश है तुम्हें
भी निरापद
सराय
की,
यहाँ हर कोई चाहता है उपहार की
वापसी, कोई नहीं रखता याद
जन्म दिन की तारीख़,
किसी असहाय
की, चौसर
बिछी
हुई
है हर दिशा में, खोखले हैं समस्त
प्रतिश्रुति, कुछ है तो मुग्ध
करता चाँद सितारों
का बूटेदार
आवरण,
न
जाने किस क्षितिज पर है जागरण।
* *
- - शांतनु सान्याल
03 नवंबर, 2020
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आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 03 नवंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
हटाएंसुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
हटाएंन जाने किस क्षितिज पर है जागरण।
जवाब देंहटाएंअबूझ पहेली
उम्दा सृजन
हार्दिक आभार - - नमन सह ।
हटाएंवाह अनुपम
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
हटाएंसुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
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