बिखरे हुए हैं, कुछ नीलकंठ के पंख,
शुष्क नदी के किनारे, खोजती
है ज़िन्दगी, पदचिन्हों के
नीचे, जल स्रोत के
लुप्त ठिकाने,
समय भर
न सका,
सीने
के सभी कोटर हमारे, फिर भी चल -
रहे हैं, हम न जाने किस उम्मीद
के सहारे। सुदूर कहीं से आ
रही है भीगी हवा, माटी
का गंध समेटे, मैं
फिर लौट के
आऊंगा
इसी
नदी तट पर, पुनर्जन्म से लड़ कर, -
सारे जिस्म में जल प्रपात को
लपेटे। तुम मेरा इंतज़ार
करना, इन्हीं शैल -
चित्रों के नीचे,
मैं तुम्हें
मुक्त
करूँगा एक दिन इस मरू धरातल
से, मुझे मालूम है, दुनिया के - -
आबोहवा का विज्ञान,
लेकिन तुम न
करना यक़ीं
इन
नक़ली भविष्यवाणियों पर, एक -
दिन शदीद बारिश, ज़रूर
निजात देगी, सभी
दुःख - दर्द के
हलाहल
से।
* *
- - शांतनु सान्याल
12 नवंबर, 2020
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सुन्दर
जवाब देंहटाएंदीपावली की असंख्य शुभकामनाएं, हार्दिक आभार - - नमन सह।
हटाएंसुंदर, सार्थक रचना 🙏
जवाब देंहटाएंदीपोत्सव पर हार्दिक शुभकामनाएं 🙏🚩🙏
- डॉ शरद सिंह
दीपावली की असंख्य शुभकामनाएं, हार्दिक आभार - - नमन सह।
हटाएंबहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएंरूप-चतुर्दशी और धन्वन्तरि जयन्ती की हार्दिक शुभकामनाएँ।
दीपोत्सव की असंख्य शुभकामनाएं ।
हटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (१४-११-२०२०) को 'दीपों का त्यौहार'(चर्चा अंक- ३८८५) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
--
अनीता सैनी
दीपोत्सव की असंख्य शुभकामनाएं ।
हटाएंदीप पर्व की मंगलकामनाएं।
जवाब देंहटाएंदीपोत्सव की असंख्य शुभकामनाएं ।
हटाएंसुंदर रचना
जवाब देंहटाएंदीपोत्सव की असंख्य शुभकामनाएं ।
हटाएं