सोचने से क्या वापसी होती है,
एक दिन अचानक संधि -
बेला में जब क्लांत
दिन, रात्रि से
मिलता
हो,
अचानक हाथों में लिए कुछ -
अरण्य पुष्प, और वक़्त
के कांटों से बिंधा
शरीर, व धूल
से सने
पांव
ले कर दहलीज़ में पहुँचता हूँ,
और ज़िन्दगी अपने शीर्ष
पर जीर्णशीर्ण आँचल
को खींचते हुए
पूछती है -
इतने
दिन कहाँ थे, उसके हाथों की
साँझ बाती में लौ अभी
तक है ज़िंदा, उस
धूसर आँगन
के सीने
में
बिखरे हुए हैं नीबू के कुछ फूल,
ऊँचे दरख़्तों की परछाइयों
में तलाश करता हूँ
मैं, कुछ ओस
में भीगे हुए
चाँदनी
के
टुकड़े, बांस वन से उतरती हुई
रात, मद्धम रौशनी में
ज़िन्दगी से जी भर
की मुलाक़ात,
और ढेर
सारी
अनकही बात, किन्तु सोचने -
से क्या वापसी होती है - -
* *
- - शांतनु सान्याल
21 नवंबर, 2020
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