सब कुछ एक जैसा लगता है चाहे दिल्ली
हो या सुदूर मालाबार का किनारा,
सभी घाघ चरित्र हैं सक्रीय,
अपने अपने केंचुली के
अंदर, मंच भी वही
घिसा पिटा,
दर्शक
भी
महा ज्ञानी, कोई एक हँसा तो बिना कुछ
समझे सभी हँस देंगे, यूँ तो सभी हैं
हरफ़नमौला के जात भाई,
खीसे में लिए फिरते हैं
गांधीजी के तीन
बन्दर, सभी
घाघ
चरित्र हैं सक्रीय, अपने अपने केंचुली के
अंदर। फ़र्क़, देखा जाए तो कुछ भी
नहीं, सभी एक जैसे लगते हैं,
चेहरे मोहरे में उन्नीस -
बीस हो सकता है,
कुल मिला
कर
हमारे बीच लिंग भेद के सिवा कुछ भी
नहीं, अंतर है कहीं, तो वो है, ९० °
पर रीढ़ का टिका रहना,
वरना चाबुकवाले हाथ
उठते रहेंगे बार -
बार, और
हम
झुक कर चलते रहेंगे पूर्वजों की तरह,
बेबस और लाचार, इस से बेहतर
है हक़ के लिए मरना हज़ार
बार।
* *
- - शांतनु सान्याल
05 नवंबर, 2020
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