मायामृग की तरह तुम देख रही हो -
बाहर का जनसमुद्र, अनजाना
कोई चेहरा या छाऊ नृत्य
के विविध मुखौटे !
रंगीन रौशनी
के नेपथ्य
में है
मेरा अस्त्तिव एक निस्तेज़ सा कोई
आकाशदीप, तुम गुम हो किसी
और दुनिया में, बेख़बर सी
हो मेरी मौजूदगी से,
जबकि हम बैठे
हुए हैं एक
दूजे
के सामने, इस परिचित रेस्तरां में !
चेहरा घुमा कर न जाने क्या
तुम ढूंढती हो, अपने दीर्घ
निःश्वास में, काश
तुम खुल के
कहतीं
उस
हांफ जाने का रहस्य, सुदूर नील -
पर्वतों के पार सूर्य डूब चुका
है, इन निःस्तब्ध क्षणों
को दे गया है कुछ
प्रश्न चिन्हों
के जलते
बुझते
अग्नि कण, या थक चले करुण सुर
में गाते हुए मोमबत्ती ! तुम खो
चली हो किसी अज्ञात महा -
शून्य में, मुस्कुराहटों
में तुम्हारे उल्का
पात स्पष्ट
दिखता
है,
तुम्हारी मध्यमा उंगली में कहीं - -
फंस चुका है हीरक वलय,
मद्धम रौशनी में, मैंने
छुआ है तुम्हारा
नाज़ुक हाथ,
शायद
तुम
उसे महसूस ही न कर पाए, होता है,
जब उँगलियों के अग्र बिंदुओं में
झिलमिलाते हों बहुकोणीय
भौतिक सुख, मैं सिर्फ़
देखता रहा तुम्हारा
ये नया रूप,
इस
मौन जड़ता का संकेत मुझे मालूम
है, मैं निःशब्द हो कर मेज से
उठा लेता हूँ मेरा ही लाया
हुआ अवहेलित सुर्ख़
गुलाब - -
* *
- - शांतनु सान्याल
11 नवंबर, 2020
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सुंदर सृजन।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह।
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह।
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