27 नवंबर, 2020

असंभव कुछ भी नहीं - -

खो जाते हैं बहुत कुछ सुबह से रात,
खो गए न जाने कितने जकड़े
हुए हाथ, गुम हो जाते हैं
अनेकों प्रथम प्रेम
में टूटे हुए मन,
छूट जाते
हैं न
जाने कितने ही आपन जन, फिर -
भी ज़िन्दगी रूकती नहीं, उसी
बिंदु से करती है वो नई
शुरुआत।  मील के
पत्थर कभी
अंतिम
नहीं होते, उस गहन अंधकार में
भी, अंतर्मन अपना पथ ढूंढ
ही लेता है, जहाँ तुमने
छोड़ा था मेरा हाथ।
अभी नभ में
है मेघों
का
राज, किसे ख़बर, कुछ ही पलों
में सोनाली धूप, अपना पंख
फैला जाए, कदाचित
मिलना बिछुड़ना
भी है किसी
तयशुदा
शर्त
का भूमिगत हिस्सा, मुमकिन
है कि आख़री वक़्त, अदृश्य
बाज़ीगर, पुनः तुमसे,
मुझे एक बार
मिला
जाए।

* *
- - शांतनु सान्याल

     
 

10 टिप्‍पणियां:

  1. चलना ही जिन्दगी है ...गहन अभिव्यक्ति ।अत्यंत सुन्दर व भावपूर्ण सृजन ।

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (29-11-2020) को  "असम्भव कुछ भी नहीं"  (चर्चा अंक-3900)   पर भी होगी। 
    -- 
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
    --   
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
    --
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
    --

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  3. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 28 नवंबर नवंबर नवंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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