है अफ़सोस ज़रा, वो चाह कर
भी मुझसे जुदा हो न
सका, कहीं न
कहीं, मैं
भी भीड़ में तन्हा ही रहा, चाह कर
भी किसी से जुड़ न सका,
इक अजीब सा रहा,
यूँ सिलसिला
दरमियां
अपने, मुझ से ताउम्र बुत परस्तिश
न गई, और वो भी पत्थर से
निकल, कभी ख़ुदा
हो न सका,
इक -
तरसीम ए ख़्वाब या इश्क़ हक़ीक़ी,
न जाने क्या थी, उसकी
तिलस्मी चाहत,
लाख चाहा,
मगर
उस मरमोज़, आतिश ए दायरा के
बाहर, कभी निकल ही न
सका, मैं भी भीड़ में
तन्हा ही रहा,
चाह कर
भी
किसी से जुड़ न सका।
* *
- - शांतनु सान्याल
सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह।
हटाएंसुंदर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह।
हटाएंसुन्दर और सारगर्भित रचना।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह।
हटाएं